जब कलाकार कला से बेवफाई करता है
एक कलाकार तभी तक कलाकारों की पांत में रहता है जब तक वह अपनी कला के प्रति वफादार रहता है। जब कोई कलाकर अपनी कला की सीमा को तोड़ कर किसी दूसरे क्षेत्र में घुसता है तो तब वह धीरे धीरे अपने प्रशंसकों का विश्वास तोड़़ने लगता है और उनके मनों से दूर होता चला जाता है।
पिछले वर्षों के दौरान बहुत सारे फिल्मी सितारे जिनके करोड़ों की संख्या में प्रशंक थे, और अपने अभिनय से काफी नाम कमाया था, कुछ लालचवश व राजनीति के लोभ में किसी न किसी दल में घुस गये तो उनके प्रंशसकांेे को बहुत झटका लगा, और जो उनके मनों में उन कलाकारों के प्रति सम्मान था वह चक्नाचूर हो गया।
अनुपम खैर एक बहुत शानदार फिल्मी कलाकर रहे। फिल्मों में उन्होंने अपनी अभिनय का खूब लोहा मनवाया था और करोड़ों लोगों के दिलों में स्थान बनाया था परंतु जब उन्होंने एक विशेष राजनीति दल के साथ अपनी प्रतिबद्धता जोड़ ली तो उनके चाहने वालों को बहुत ठेस पहुंची। परिणाम यह हुआ कि उसके बाद जब उन्हें वह कलाकार न होकर उस विशेष दल का नेता नजर आता है। उनके मनों में उसके प्रति वह सम्मान नहीं रहा जो पहले हुआ करता था। उनकी फिल्मी कलाकार पत्नी किरण खैर ने भी राजनीति में घुस कर अपना वह सारा सम्मान खो दिया जो उन्होंने फिल्मों से अर्जित किया था।
धर्मेंद्र, हेमा मालिनी और बाद में उन्हीं का बेटा सनी देओल आदि फिल्म सितारों ने अपनी फिल्मों में यादगारी अभिनय किये हैें। परंतु विशेष पार्टी में शमिल हो उन्होंने वह सब खो दिया जो एक कलाकार के रूप में वर्षों की मेहनत के बाद प्राप्त किया था।
कुमार सानू और मनोज तिवाड़ी भी इसी श्रंखला के अगले पिटे हुए खिलाड़ी है। संगीत गायकी क्षेत्र में बेशक इनके गीत अभी भी लोगों की ज़ुबानों पर हैं परंतु किसी राजननीतिक दल के अपनी अपनी प्रतिबद्धता जोड़ कर मानोें उन्होंने अपने फैंस की भावनाओं के साथ बलात्कार कर दिया हो। भविष्य में ऐसे लोगों को कभी याद नहीं किया जाता। ऐसे लोगों पर एक धब्बा लग जाता है।
वर्षों पहले एक बार अमिताभ बच्चन ने भी इसी प्रकार की गलती की थी। जब अपने मित्र तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी के कहने पर वे कांग्रेस में शामिल हो गये थे और संसद सदस्य बन गये। परंतु जब राजनीति कि गंदी दलदल में फंसने लगे तो उन्हें जल्दी ही इसका अहसास हो गया। उन्हें महसूस हुआ कि वे गलत क्षेत्र में आ गये हंै और अपनी कला से बहुत बड़ी बेवफाई कर रहे हैं। इसी अहसास को महसूस कर उन्होंने शीघ्र ही अपनी गलती सुधार ली और राजनीति को अलविदा कह कर फिर अपने फिल्मी कैरियर कीे वापिस मुड़ आये। कला ने उन्हें अपने प्रति उनके वफादारी को बहुत बड़ा सम्मान दिया जो आज तक के फिल्मी इतिहास में बहुत कम कलाकारों को नसीब हुआ है।
इसी श्रंखला में राज बब्बर, शत्रुघ्न सिंहा, विनोद खन्ना आदि भी फिल्मी कैरियर के उतार के बाद राजनीति में शामिल हुए। राजनीति में न तो वे ज्यादा सफल हुए, उल्टे वे अपने फिल्मी प्रशंसकों द्वारा भी लगभग भुला से दिये गये। इसी प्रकार अन्य अनेक क्षेत्रीय फिल्मों के कलाकाल अपना अभिनय छोड़ राजनीति में आते रहे और भुलाये जाते रहे। वे न इधर के रहे न उधर के और अन्धेरे में गुम हो गये।
हां, दक्षिण भारत के कुछ कलाकार अवश्य ही अपवाद सिद्ध हुए हैं और सफल हुए हैं। तामिलनाडु में जय ललिता अपने फिल्मी कैरियर के उतार पर थी तो राजनीति का दामन पकड़ा और एक सफल अभिनेत्री के साथ-साथ राजनीतिक नेता भी बनी। तमिलनाडु के ही रामाचंद्रन भी फिल्मों और राजनीति दोनें में सफल हुए। लेकिन ऐसा प्रायः बहुत कम लोगों को ही नसीब होता है।
एक कलाकार तभी तक कलाकारों की पांत में रहता है जब तक वह अपनी कला के प्रति वफादार रहता है। जब कोई कलाकर अपनी कला की सीमा को तोड़ कर किसी दूसरे क्षेत्र में घुसता है तो तब वह धीरे धीरे अपने प्रशंसकों का विश्वास तोड़़ने लगता है और उनके मनों से दूर होता चला जाता है।
पिछले वर्षों के दौरान बहुत सारे फिल्मी सितारे जिनके करोड़ों की संख्या में प्रशंक थे, और अपने अभिनय से काफी नाम कमाया था, कुछ लालचवश व राजनीति के लोभ में किसी न किसी दल में घुस गये तो उनके प्रंशसकांेे को बहुत झटका लगा, और जो उनके मनों में उन कलाकारों के प्रति सम्मान था वह चक्नाचूर हो गया।
अनुपम खैर एक बहुत शानदार फिल्मी कलाकर रहे। फिल्मों में उन्होंने अपनी अभिनय का खूब लोहा मनवाया था और करोड़ों लोगों के दिलों में स्थान बनाया था परंतु जब उन्होंने एक विशेष राजनीति दल के साथ अपनी प्रतिबद्धता जोड़ ली तो उनके चाहने वालों को बहुत ठेस पहुंची। परिणाम यह हुआ कि उसके बाद जब उन्हें वह कलाकार न होकर उस विशेष दल का नेता नजर आता है। उनके मनों में उसके प्रति वह सम्मान नहीं रहा जो पहले हुआ करता था। उनकी फिल्मी कलाकार पत्नी किरण खैर ने भी राजनीति में घुस कर अपना वह सारा सम्मान खो दिया जो उन्होंने फिल्मों से अर्जित किया था।
धर्मेंद्र, हेमा मालिनी और बाद में उन्हीं का बेटा सनी देओल आदि फिल्म सितारों ने अपनी फिल्मों में यादगारी अभिनय किये हैें। परंतु विशेष पार्टी में शमिल हो उन्होंने वह सब खो दिया जो एक कलाकार के रूप में वर्षों की मेहनत के बाद प्राप्त किया था।
कुमार सानू और मनोज तिवाड़ी भी इसी श्रंखला के अगले पिटे हुए खिलाड़ी है। संगीत गायकी क्षेत्र में बेशक इनके गीत अभी भी लोगों की ज़ुबानों पर हैं परंतु किसी राजननीतिक दल के अपनी अपनी प्रतिबद्धता जोड़ कर मानोें उन्होंने अपने फैंस की भावनाओं के साथ बलात्कार कर दिया हो। भविष्य में ऐसे लोगों को कभी याद नहीं किया जाता। ऐसे लोगों पर एक धब्बा लग जाता है।
वर्षों पहले एक बार अमिताभ बच्चन ने भी इसी प्रकार की गलती की थी। जब अपने मित्र तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी के कहने पर वे कांग्रेस में शामिल हो गये थे और संसद सदस्य बन गये। परंतु जब राजनीति कि गंदी दलदल में फंसने लगे तो उन्हें जल्दी ही इसका अहसास हो गया। उन्हें महसूस हुआ कि वे गलत क्षेत्र में आ गये हंै और अपनी कला से बहुत बड़ी बेवफाई कर रहे हैं। इसी अहसास को महसूस कर उन्होंने शीघ्र ही अपनी गलती सुधार ली और राजनीति को अलविदा कह कर फिर अपने फिल्मी कैरियर कीे वापिस मुड़ आये। कला ने उन्हें अपने प्रति उनके वफादारी को बहुत बड़ा सम्मान दिया जो आज तक के फिल्मी इतिहास में बहुत कम कलाकारों को नसीब हुआ है।
इसी श्रंखला में राज बब्बर, शत्रुघ्न सिंहा, विनोद खन्ना आदि भी फिल्मी कैरियर के उतार के बाद राजनीति में शामिल हुए। राजनीति में न तो वे ज्यादा सफल हुए, उल्टे वे अपने फिल्मी प्रशंसकों द्वारा भी लगभग भुला से दिये गये। इसी प्रकार अन्य अनेक क्षेत्रीय फिल्मों के कलाकाल अपना अभिनय छोड़ राजनीति में आते रहे और भुलाये जाते रहे। वे न इधर के रहे न उधर के और अन्धेरे में गुम हो गये।
हां, दक्षिण भारत के कुछ कलाकार अवश्य ही अपवाद सिद्ध हुए हैं और सफल हुए हैं। तामिलनाडु में जय ललिता अपने फिल्मी कैरियर के उतार पर थी तो राजनीति का दामन पकड़ा और एक सफल अभिनेत्री के साथ-साथ राजनीतिक नेता भी बनी। तमिलनाडु के ही रामाचंद्रन भी फिल्मों और राजनीति दोनें में सफल हुए। लेकिन ऐसा प्रायः बहुत कम लोगों को ही नसीब होता है।
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