गुरुवार, 2 जून 2016

बच्चों के लिए 

लो आ गयी है गर्मी
लो आ गयी है गर्मी
उड़  गया है पाला
गर्मी ने डेरा डाला
सर्दी हुई पराई
लो  फैंक दी  रजाई 
लगती भली है छाया
गर्माने लगी है काया
चूने लगा पसीना
मुश्किल हुआ है जीना
उड़ने लगी है धूल
खिलने लगे हैं फूल
पानी मैं  कूद जाओ
धमा  चौकड़ी मचाओ

(बलदेव सिंह महरोक )

Mere Shehar ke Janvadi Lekhak

 मेरे शहर के जनवादी लेखक
प्रगतिशील कहलाने के बहुत  शौकीन हैं 
कागजों पर क्रांति गीत  उलीकते
कुर्ता  पायजामा पहने
चश्मा ओढ़े
कंधे पर झोला लटकाए
 कवि  गोष्ठियां   करते हैं.
कविता पढ़ने से पहले
बजाते हैं तालियां  एक   दूसरे की कविता पर.

पहाड़ों से टकराने  और
समुद्र की छाती  पर चलने का दावा करते,
परन्तु डरते हैं उम्र खालिद और कन्नैया कुमार का नाम लेने से,
डरते है कलबुर्गी का नाम लेने से.
वे बनना नहीं चाहते देश द्रोही
नहीं चाहते  जेल जाना।
जेल में वो मजा कहाँ
जो बंद कमरे में बैठकर
चाय और बिस्किट के साथ
कविता पडने में है।
मेरे शहर के जनवादी लेखक
बंद कर लेते हैं दरवाजे और खिड़कियां
चर्चा करने से पहले
ताकि सुन न ले  उनकी आवाज
 और पकड़ कर न ले जाये पुलिस।
बहुत डरते हैं मेरे   शहर के जनवादी लेखक
खाकी वर्दी से।
(असली जनवादी लेखकों से क्षमा )
    -बलदेव सिह महरोक
   

  

बुधवार, 1 जून 2016

kuchh shabd



           कुछ शब्द
मुझे अपने शब्द कोश में
कुछ शब्द मुझे अच्छे  लगते
मुझे अच्छा नहीं लगता शब्द' राष्ट्रवाद '
राष्ट्रभक्ति का आवरण  ओढे 
राष्ट्र और राष्ट्र के बीच 
युद्ध  का प्रतीक 
गैस  चेंबरों मैं 
सड़ती हुई  लाशों की 
बदबू  आती है मुझे 
इस शब्द में। 

मुझे अच्छा नहीं लगता शब्द 'धर्म ' 
घृणा  का प्रतीक 
जो जोड़ता  नहीं    तोड़ता  है 
आदमी को आदमी से 
 जो सिखाता है तो बस 
आपस में बैर रखना। 

 मुझे   अच्छा नहीं लगता  शब्द  ' जाति ',
इंसानों  के लहू से 
भीगा यह शब्द 
ऊंच,  नीच , छूूत और  अछूत 
इन चार बेटों का बाप ,
सुनाई देती हैं मुझे चीखें 
 इस शब्द में 
गालियाँ खाते हुए  
किसी मजदूर की 
और अस्मत लुटाते  हुए 
किसी अछूत कन्या की। 

मेरे शब्द कोश  में 
सदियों से छिप कर बैठे   ये शब्द 
मारने लगे   हैं सड़ांध  
और गन्दा कर रहे  हैं  मेरे शब्द कोश को। 
 निकाल देना चाहता हूँ  इन शब्दों को मैं  अब ,
 अपने शब्द कोश से,
 और बना देना चाहता हूँ  पवित्र 
 अपने शब्द कोश को। 
               (बलदेव सिंह महरोक )


सोमवार, 30 मई 2016

               उड़ने वाले लोग 

उड़ने लगते हैं कुछ लोग
उस दिशा मैं हवा का रुख देख  कर
 वे  मानव  नहीं  होते
वे होते  हैं कागज के टुकड़े
पत्ते या तिनके।
मिल जाते हैं
वहीँ कहीं धूल में
नहीं  चलती जब  हवा।
मगर वो जो,
हवाओं से  टकराने वाले
 खड़े रहते हैं  सीना तान कर
 करते हैं मुकाबला
 आंधियों का
वे या तो टूट  जाते हैं,
 या फिर
आंधियां उन्हें सलाम करती हैं।
 

 




हमारी बेटियां (देश की सभी बेटियों के नाम)

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