बुधवार, 26 दिसंबर 2018

आ गया है नया साल


आ गया है नया साल

बीत गया है 2018 भी 
यूं ही बीते कई साल
आ गया है नया साल

365 दिन तो यूं ही बीत गये 
पर हम न कर सके
ऐसा कोई कमाल
आ गया है नया साल

सपने देखते रहे वर्ष भर कबाब के
पर मंहगाई के दौर में 
मिली न हमें  दाल
आ गया है नया साल

सोचा था पैसे जोड़ कर, 
खरीदेंगे एक पाजामा 
खरीद पाये न पर इक रूमाल
आ गया है नया साल

सोचा था हम तो बड़े पहलवान हैं
पर तोड़ पाये ना  
किसी का एक बाल
आ गया है नया साल

यह ज़िंदगी है चार दिन की भाई
रख सको तो रख लो,
एक दूसरे का ख्याल
आ गया है नया साल

बारी आयेगी एक-एक करके सबकी
यहां न कोई बिग,
न कोई समाल
आ गया है नया साल

बिगडे़गा नहीं तुम्हारा कुछ
पूछ लोगे तुम भी अगर
दोस्तों का हाल
आ गया है नया साल

बीत बीत  कर बीत गये है 
न जाने कितने साल
आ गया है नया साल

मंगलवार, 13 नवंबर 2018

बस इतना सा अंतर है चीन और भारत में

बस इतना सा अंतर है चीन और भारत में

  भारत के गुजरात में जब विश्व की सबसे ऊंची अर्थात 600 फुट ऊंची सरदार पटेल की मूर्ति लगाई जा रही थी तो दूसरी तरफ चीन  अपने शांक्शी प्रांत के  झियान  शहर में 330 फुट ऊंचा टावर बना कर खड़ा कर रहा था । यह विश्व का सबसे ऊंचा एयर प्यूरिफायर है जो दूषित हवा को साफ करता है और पूरे शहर की हवा को साफ रखता है व हर रोज 1 करोड़ घन मीटर हवा को साफ करता है

             हमारी मूर्ति सात किलोमीटर दूर से नजर आती है। चीन का वह टावर 10 किलोमीटर की परिधि से हवा साफ करता है। यह धूंए को सोख लेता है।
              यही अंतर है हमारे में और चीन में।

भारत के लोग अयोध्या में सबसे ऊंचीे राम की मूर्ति बनाने की योजना बना रहे हैं, उधर चीन ने एक कृ़ित्रम चंद्रमा बनाना शुरू कर दिया है जो सूर्य के प्रकाश को परावर्तित करके दिल्ली जैसे बड़े शहर को रात में रोशनी देगा। यह हमारे प्राकृतिक चंद्रमा से 8 गुना ज्यादा प्रकाश देगा, अर्थात सारे शहर में स्ट्रीट लाईट की जरूरत नहीं पड़ेगी और शहर रात को भी दिन की तरह चमकेगा। इससे उन्हें 1250 करोड़ रुपए प्त वर्ष की बचत होगी।   यही अंतर है हमारे में और चीन में ।
हमें गर्व है कि रामायण काल में श्री राम जी की सेना ने समुंद्र पर 30 किलोमीटर लम्बा श्रीलंका तक पुल बनाया था। परंतु चीन हमसे पीछे कैसे रहे। उसने  समुद्र पर 55 किलोमीटर लम्बाई का दुनिया का सबसे लम्बा पुल बना दिया है।
                    यहीं अंतर है भारत और चीन में। 

                 हम अपने देश में सूई  से लेकर  पटाखे तक छोटी-छोटी वस्तुएं भी चाईना से मंगवाते हैं और अपनी जनता को काम देने की बजाये उन्हें सबसिडी पर दो रूपये किलो गेहूं देकर हिंदु-मुस्लमान का खेल खिलाते हैं, परंतु चीन की जनता  छोटी-छोटी चीजें बना कर दुनिया भर में सप्लाई करने में व्यस्त रहती है और अपनी सरकार से नौकरियां नहीं मांगती।

                    बस इतना सा ही अंतर है हम में और चीन में ।

                                                                                             -बलदेव सिंह महरोक


शुक्रवार, 9 नवंबर 2018


     (कुछ हल्का- कुछ फुल्का)


125 रुपये का नोट

राम चन्द्र एक दुकान पर गया । वहां से 125 रुपये का सामान खरीदा। दुकानदार को उसने एक सौ का नोट, दो दस-दस के और एक पांच रुपये का नोट दिया। 
राम चंद्र सोच रहा था कि यदि उसके पास 125 रुपये का नोट होता तो उसे इतने मूल्य के चार नोट न देने पड़ते। पर उसे ध्यान आया कि 125 रुपये का नोट तो होता ही नहीं। यदि रिजर्व बैंक 125 रुपये का नोट भी निकाल देती तो कितना आसान होता, उसके लिए और जनता के लिए। ऐसे में सरकार को चार नोटों पर खर्चा न करना पड़ता बल्कि एक नोट से ही काम चल जाता। इसी प्रकार राम चन्द्र सोच रहा था कि अगर 25 रुपये का  नोट हो त ोइस मूल्य के लेन देन के लिए केवल एक ही नोट से काम चल जाता जबकि अब हमें 25 का लेनदेन करने के लिए या तो दस-दस के दो नोट और एक पांच रुपये का नोट अथवा एक बीस का और एक पांच का नोट या सिक्का देना पड़ता है।  भगुतान करने का यह एक निहायत ही असुविधाजनक  कार्य है। वास्तव में अभी तक हमारी मुद्रा के नोटों में पांच रुपये को जोड़ता हुआ कोई भी नोट रिजर्व बैंक द्वारा निकाला नहीं गया है। अतः भुगतान के लेन-देन में जनता को बहुत सी कठिनाइयां आती हैं। 
पिछले दिनों सोशल मीडिया पर 350/- रूप्यंे  के नोट के आने के बारे में नोट की तस्वीर वायरल हुई थी। लेकिन पता चला कि रिजर्व बैंक की ओर से ऐसा कोई नोट जारी करने की खबर नहीं है। 
किसी भी देश केंद्रीय बैंक की ओर से विभिन्न प्रकार के नोट इसलिए जारी किये जाते हैं कि जनता  सुविधजनक तरीका से  भुगतान कर सके। लेकिन हमारे यहां अभी भी बहुत सारे सुधार करने की आवश्यकता है। ज्यादा मुश्किल तब आती है जब 225, 125, 15, आदि का भुगतान करना होता है।
ऐसे मामलों में उस मूल्य का जोड़ बिठाते हुए हमें कई नोट देने पड़ते हैं। निश्चय ही सरकार का नोट छापने पर करोड़ों रुपया खर्चना पड़ता है। यदि उक्त बातों का ख्याल रख लिया जाये तो छपाई का काफी खर्चा बचाया  भी जा सकता है। 
चलते-चलतेः
   जब देश की जनसंख्या 125 करोड़ हो चुकी है तो सरकार को भी चाहिए इसका जश्न मनाते हुए 125 रुपये का नोट निकाला जाये। क्यों? सुझाव कैसा लगा ?









क्विता

मेदी जी अब गद्दी छोडो
देश को अब ज्यादाा ना तोड़ो
बहुत करी है देश की सेवा
बहुत खा लिया तुमने मेवा
बहुत बेचलिया राम को तुमने 
और किसी की आने दो
नही ंतो जनता आयेगी 
यहां से तुम्हें भगायेगी। 




                   2
 एक कदिनं अंकल जी  के यहां एक मेहमान आया। अंकल जी उन्हें मंदिर घुमाने ले गये। घर आये तो मैंने देखा अंकल जी उस मेहमान को चरखाचलाना सिख रहे थसे। 

              3
एक दिन अंकलजी मुझे कहने लगे आओ, मैं तुमहें बुलेट ट्रेन पर सैर करवाता हूं। 
स्च? मेने कहा
ळां,  औरवे मुझे एक जंगल में जे गये। ऊबड़ खबाड़ जमीन। 
टंकलन जीम ुझे आप कहां ले आये?
ैन परघुमाने लाया हूं
   प्र आप तेा मुझे जंगल में औार खेतों में ले आये हो। 
‘ःयहयीय तो कमाल है। यहीं से बुलेट ट्रेन गुजरेगी।
‘पर लाईन कहां है?
बेले, लाईन की कल्पना करो। कल्पना करो कि हयां से लाईन छि?ब्छी हुई ळै। लाईन प् र बुलेट ट्रेन दौड़ी चली जा रही है। और कल्पना करों के ट्रेन पर तुम बैठ
ै होष्’, 
  टाहा! म्जा आ रहा है ना।  हमारादेश कितनी उन्नति कर रहा है। 
हां, अंकल जी, मान गये ।       
लघु कथा -टीे
-ऐ बहन क्या कर रही हो
-करना क्या है। बोर हो रही हूं।
-मैं भी बोर हो रही थी।
-फिर क्या करें?
-चलो, मंदिर चलते हैं। 


-यार, गाय को पवित्र क्यों माना जाता है?
एक जानवर को पवित्र माना जाता है। आदमी को नही।
-क्योंकि गाया का दूध पीते हैं। उका गोबर लीपा जाता । क्या आदमी का गोबर लीप सकते हैं। 














कबीर खड़ा  बाजार में....
कबीर खड़ा बाजार में सबसे मांगे वोट
एक को गले लगाय के दूजे को दे चोट।
पांच साल तक पण्डों के संग, खाई खूब खीर
पड़ी जरूरत वोट की, आया याद कबीर।
कबीर खड़ा बाजार में सबकी मांगे खैर
एक से रखी दोस्ती एक से रखे बैर। 
आया पास कबीर के मुझको डालो वोट।
बात अगर मानी नहीं, देंगे गहरी चोट। 




















याद है मुझको वह गुजरा जमाना
बीते दिन 
अच्छे हो या बुरे 
ुकुछ सालो  बाद
जब याद आते हों तो, वे संघर्ष के दिन
 बीते दिनों के मित्र
अच्छे हो या बुरे
 कुछ सालों बाद
तो अच्दे लगते हैं
याद करके
कभी कभी  कसैले भी लगने लगते ळैं
 उनके कहे कटु शब्दल
जब कभी वे हमारा मजाक उड़ाया करते थे

बुरे लगते वे दिन किन्हीं अवसरों पर
 जो कीाी उन्होंने हमें कहे थे 
या फिर भी वेदिन अच्दे लगते हैं
ज्ब याद आते हैं वेउिदन क्यों कहे थे हमने उनको गलत शब्द
ब्हुत बुरे लगते हैं हम अपने आप को 
ज्ब याद आते हें वे पुराने दिन
ल्ेकिन सबसे अच्दे लगते हैं वे पुराने दिन
 ज्ब याद आते हैं हमें कुछ अच्छे मित्र
 म्नही मन हम उन्हें प्यार करते 
अच्छा लगता थनके साथ बैठेना गप्पें मारना
 अवसरों की तलाश में रहते थे हम
 उनके साथबातें करना 
या अवसरों की खोज करना 
ळमारा यह खोजी मन
 च्मक उठती थीं हमारे आंखे अचानक 
डनकोअपने सामने देख
 एक इतिहास होते सबके बीते हुए कल का
 जे कीाी लिखा नहीं जाता 
प्र उकरा रहता है जीवन पर्यंत हमारे मन पर
  किन्हीं पन्नों पर 
समय के साथ  
हमस ब ऐतिहासिक पुरुष हैं
  वह इतिस लिखानही जाता कागज के पन्ने पर और 
मर जाता है समय के साथ हमारे साथ ही 
हम सब पन्ना हैं इतिहास के एक बड़े ग्रंथ का। 



























मेरा बचपन

ओ मेरे बचपन
तू कभी लौट कर मत आना
मैं नहीं याद करना चाहता अपना बचपन
पिता की मार सहना
कभी खेले न थे साथियों के संग
मैं नही चाहता मुझे याद आयें
वे दिन
विषाद से भरे।
मैं नहीं चाहता मुझे याद आये वे दिन
मेरे शराबी बाप का मारना मेरी मां को, 
निकालना गालिया मां को
मैं देखता हूं अपनी कमर पर वे निशान
अपने बापू की मार के। 
मेरा बचपन कभी लौट कर मत आना।
मैं नहीं याद करना चाहता
उस बचपन को 
लच्छू हलवाई की दुकान पर
 जूठे कप धोते हुए उन मेरे नन्हें हाथों को। 
मैं नहीं याद करना चाहता 
उन बचपन के दिनों को
नहीं याद करना चाहता स्कूल ड्रेस में जाते हुए उन बच्चों को 
जो कभी देख लेते थे मेरे हाथों में जूठे कप। 


मैं नहीं चाहता  अपनी मां को 
शराबी बापू के हाथों पिटते हुए देखना
 नही  देखना चाहता हूं अपनी मां की आंखों में वह खौफ  
गिड़गिड़ाते हुए बापू के सामनेे। 
 नहीं सुनना चाहता मैं अपने बापू को कहते हुए
‘ओ हराम की औलाद’
कितनी बड़ी गाली थी वह
मेरी मां के लिए ।
ओ मेरे बचपन !
तू कभी लौट के मत आना मेरे लिए। 
मैं नहीं देखना चाहता भूखे अपनी मां को 
जो अपने हिस्से की रोटी मुझे खिला देती थी। 
और रहती थी खसुद भूखे। 
मैं पहनना नहीं चहता
किसी के उतरे कपड़े
जो लेकर आती थी मेरी मां
मेरी मुंह बोली मौसी के घर से। 
ओ मेरे बचपन
तु लौट क ेमत आना!
मैं नहीं चाहता  झूठ बोलना मास्टर जी के सामने
बहाने बना कि भूल गया मैं फीस लाना, 
मैं नहीं चाहता कि मांग कर पढ़ना किताबें अपने दोस्तों से। 
     

शुक्रवार, 2 नवंबर 2018

सरदार पटेल, देखोे आपके देश में क्या हो रहा है?



           सरदार पटेल, देखोे आपके देश में क्या हो रहा है?  


                            सरदार पटेल, आपको हम सब देशवासियों का नमन!

       आपको सबसे ऊंचे मंच पर खड़े देखकर खुशी हुई। 

       आप तो पहले भी सबसे ऊँचे थे। अब प्रतिमा के रूप में भी सबसे ऊँचे हैं। आपको स्टेच्यू आॅफ यूनिटी कहा गया है। आप सचमुच एकता के प्रतीक थे। यह खिताब आप से कोई नहीं छीन सकता। आप सब भारतीयों के थे। परंतु आपके तथाकथित चेलों चपाटों ने आपको अब एक सीमा में बांध दिया है।                    

         आपको बुत के रूप में एक जगह बांध कर खड़ा कर दया है। हमने आपके बुत का उद्घाटन होते देख,ा  परंतु  वहां किसी प्रकार की एकता के दर्शन नहीं हुए। आपको एक वर्ग तक सीमित कर दिया गया।  आपको वोट के लिये छीन लेने की कोशिश हो रही है। न वहां विपक्ष था, न वहां मुस्लिम या सिख या ईसाई दिखाई दिये। आपने भारत की रियासतों को भारत रूपी माला में पिरोया था। परंतु राज्यों का कोई प्रतिनिधि वहां नहीं था। क्या यह सब देखकर आपको बुरा नहीं लगा? हमने वहां पर आपके सिद्धांतों के परखचे उड़ते देखे। 

             सरदार! अब जब आप सबसे ऊँचे मंच पर खड़े हैं, तो आपको वहां खडे़-खडे पूरा भारत नजर आ रहा होगा। आप वहां खड़े देख रहे होंगे कि आपके भारत में क्या हो रहा है। आपके उद्घाटन की जब तैयारियां हो रही थी, उस समय पश्चिमी बंगाल के 24 परगना के एक गांव  में एक बाप अपनी दो महीने की दो जुड़वां बच्चियों को कुछ रूपयों के बदले बेच रहा था। कोई बाप यूं ही नहीं अपनी बेटियों को बेचता। तभी बेचता है जब उसके पास उन्हें खिलाने के लिए पैसे नहीं होते।

              सरदार! अपने चेलों से बस इतना कह देना कि उन्होंने आपके बुत पर हज़ारों करोड़ रुपये खर्च कियें हैं। कुछ रुपये देश की ऐसी बच्चियों के ऊपर भी खर्च कर दें ताकि किसी गरीब बाप को अपनी बेटी न बेचनी पड़े।

हे  सरदार!  आप अमर रहें,! अमरे रहें                                                              

                                                                                    -बलदेव सिंह महरोक



शुक्रवार, 26 अक्तूबर 2018

झुमके की तलाश

                                                                                व्यंग्य   (Excuse me Sir!)
झुमके की तलाश
इस देश में बहुत से सवाल अनुत्तिरित पड़े हैं जो वर्षों से हल होने बाकी हैं। इनमें एक सवाल है झुमके का।
बात बरेली की है।   बहुत साल पहले लगभग 1965 में  इस शहर के एक बाजार में साधना का झुमका गिर गया था । वह कई दिनों तक वहां अपना झुमका ढूंढती रही थी, गली-गली, बाजार-बाजार। बाज़ारों में गाना गाते हुए। पर झुमका नहीं मिला। मिलता भी क्यों? लोग बड़े बेईमान होते है। कौन देता है इतना कीमती झुमका। वह भी अगर साधना का हो। 

यह तो उस समय की राज्य सरकार की जिम्मेवारी थी कि वह झुमका ढूंढ कर देती। राज्य सरकार अगर कामयाब न हो तो केंद्र सरकार की जिम्मेवारी थी । अगर फिर भी न मिलता तो सीबीआई जांच बैठाती, कोई आयोग बैठाती । परंतु सरकारें अक्सर वे काम नहीं करतीं जिनसे उनको वोट न मिलता हो। उत्तर प्रदेश में उसके पश्चात कई सरकारें आई,, चैधरी चरण सिंह की, चंद्र भानु गुप्ता की, सुचेता कृपलानी की,  कमलापति त्रिपाठी की,, एच.एन. बहुगुणा की,  एन डी तिवाड़ी की,  आर.एन.यादव, बनारसी दास, श्रीपति मिश्रा,  वीर बहादुर सिंह , वी.पी. सिंह,  कल्याण सिंह, मुलायम सिंह , राजनाथ सिंह, मायावती , अखिलेश यादव और अब अदित्य नाथ योगी की । लेकिन अभी तक वह झुमका गायब है। किसी ने परवाह नहीं की। आज अगर हेमा मालिनी का झुमका गिर जाता तो उसे ढूंढने के लिए भाजपा सरकार ऐड़ी-चोटी का जोर लगा देती। भाजपा सरकार की यही एक खासियत है।

पिछली बार जब मोदी जी बरेली गये थे तो  उन्होंने झुमके का जिक्र किया था।  अब फिर चुनाव आने वाले हैं । मोदी जी अपने भाषणों में कह सकते हैं कि कांगे्रस ने 60 सालों में क्या किया। जो  एक झुमका नहीं ढूंढ सकी । इतना पुराना गुम हुआ झुमका पांच साल में तो नहीं ढंूढा  नहीं जा सकता। कम से कम दस साल चाहिए। वे सन 2022 तक जरूर ढूंढ कर देंगे।

    अब समय आ गया है कि हम उस गुम हुए झुमके की तलाश करें। बरेली के मतदाताओं के लिए यह एक अच्छा मौका है कि वोट उसी पार्टी को देंगे  जो वायदा करेगी कि झुमका ढंूढ कर देगी।  यह बरेली के लोगों की नाक का ही सवाल नहीं है बल्कि उत्तर प्रदेश के की जनता की इज्जत का भी सवाल है जो वर्षों से बना हुआ है।
इंतज़ार करते हैं कि क्या होता है।
          --बलदेव सिंह महरोक






बुधवार, 19 सितंबर 2018

       अंधेर नगरी
(कोतवाल की कचहरी में)
-श्रीमान, शेल्टर होम में बच्चियों से रेप होता था।
-बहुत बुरी बात है।
- हां साहब।
-कौन चलाता था शेल्टर होम को।
-साहब एक नेता है । वही चलाता था।
 -उसे पकड़ कर लाओ।
-कैसे पकड़ें श्रीमान, नेता है वह। कानून का मालिक वही है। 

3
-कहां होता था रेेप?
-इस बिल्डिंग मे।
-बिल्डिंग किसने बनाई थी।
 -साहब, ठेकेदार ने।
-ठेकेदार को पकड़ कर लाओ। 

4

-ठेकेदार! क्या यह बिल्डिंग तुमने बनाई है?
-साहब मैंनेे तो ठेका लिया था। बिल्डिंग तो मिस्त्री ने बनाई है।
-मिस्त्री को पकड़कर लाओ।

-साहब मिस्त्री हाजिर है।
-क्या यह बिल्डिंग तुमने बनाई थी।
-साहब, मैंने तो ईंट लगाई थीं, जो मुझे मजदूर ने दी थी। 
-ठीक है। मजदूर को पकड़ कर लाओ।
-साहब, मजदूर हाज़िर है। 
-क्यों रे, मिस्त्री को ईंटें तुमने पकड़ाई थी?
-जी सरकार।
-पर ईंटें मैंने नहीं बनाई थी। ईंटें तो भट्ठे  से आई थी। 
-भट्ठे वाले को बुलाओ। 
-साहब भट्ठे वाला हाजिर है। 
-तुमने कैसी ईंटें बनाई हैं?
-साहब, ईंटे तो पथेरे ने पाथी थीं,  मैंने नहीं। पूछ लो चाहे ।  मेरे साथ ही आया है। 
-क्यों रे पथेरे, ये ईंटे तुमने पाथी थीं ?
-जी सरकार।
-तुमने ऐसी ईंटें क्यों बनाई। 
-????
...........आर्डर,.. आर्डर...आर्डर..
सभी सबूतों के आधार पर इस पथेरे को सात साल बामुशक्कत कैद की सजा दी जाती है। 

सोमवार, 6 अगस्त 2018

Laghu Katha- पिकनिक

                                                    पिकनिक

सुबह का समय था।  कर्मचारी अपनी-अपनी डियूटी पर पहुंचे ही थे, और स्कूलों में अभी पहली घंटी ही बजी थी कि  रेडियो और चैनलों पर एक खबर प्रसारित होने लगी ।  देश के एक शीर्ष नेता का निधन हो गया था। सरकार ने उनके निधन पर सारे दश में सात दिन के शाोक की घोषणा कर दी थी। साथ में यह भी घोषणा की जा रही थी कि नेता जी को श्रद्वांजति स्वरूप आज का दिन सभी स्कूलों और सरकारी कायालयों में अवकाश कर दिया गया है।
छुट्टी की खबर सुन कर स्कूलों में विद्यार्थियों की खुशी का कोई ठिकाना न रहा  वे अपने-अपने बस्ते उठा कर शोर मचाते हुए घरों की ओर भागन लगे कि चलो, आज का दिन मुफ्त में एक छुट्टी मिली।
इधर नीरज बाबू अभी कार्यालय में पहुंचे ही थे कि  यह खबर उनके कानों में पड़ी।  सुनते ही तुरन्त उन्होंने घर पर पत्नी को फोन किया-‘सुनो! दफतर में छुट्टी हो गई हैं। वह क्या है कि कोई नेता  प्लेन दुर्घटना में मर गया है। मैं जल्दी घर पहुंच रहा हूॅ। मौसम अच्छा है।  तुम बच्चों के साथ तैयार हो जाओ। आज हम पिकनिक मनाने चलेंगे। ’
और नीरज बाबू  ओठों को गोल गोल बनाकर सीटी बजाते हुए वापस  घर  जाने की तैयारी करने लगे।

मंगलवार, 17 जुलाई 2018

नास्तिकों की संख्या हिंदू धर्म से ज्यादा

विश्व में नास्तिकों की संख्या हिंदू धर्म को मानने वालों की संख्या से ज्यादा

यह जानकर आश्चर्य नहीं होना चाहिए विश्व में नास्तिकों की संख्या विश्व में हिन्दुओं की कुल जनसंख्या से ज्यादा है। कुछ दिनों पहलेे ‘नवभारत’ में छपी एक रिपोर्ट जो कि ‘एडिहेरेंटस डाॅट काॅम’ ओर पी यू रिसर्च से प्राप्त आंकड़ों पर आधारित है, द्वारा विश्व में विभिन्न धर्मों को मानने वाली की संख्या इस प्रकार हैः-

विश्व की वर्तमान कुल जनसंख्या: लगभग सात अरब
1. ईसाई   -   220 करोड़  ;31.5 प्रतिशत
2. इस्लाम -   160 करोड़  ; 21 प्रतिशत
3. नास्तिक -  110 करोड़ ;15.35 प्रतिशत
3. हिन्दू   -  100 करोड़   ;13.95 प्रतिशत
4. चीनी पारंपरिक धर्म   -  39.4 करोड़
5. बौद्ध धर्म -        37.6 करोड
6. जातीय धार्मिक समूह  -  40 करोड़
7. सिख धर्म  -     2.3 करोड़
8. जैन धर्म -       42 लाख
9. शिंटो धर्म ; जापान - 40 लाख

परंतु 2011 में की गई  जनगणना के मुताबिक भारत में केवल 33004 ही नास्तिक ही दर्शाये गये हैं।  अर्थात 120 करोड़ जनता का केवल 0.0027 प्रतिशत।  ज्ञात रहे कि 2011 की जनगणना में पहली बार नास्तिकों की भी गणना की गई थी।

नास्तिकों को इन आंकड़ों को जानकर बहुत आश्चर्य हुआ है। निश्चय ही यह एक शरारतपूर्ण डाटा है।
‘भारत में लाखों की संख्या में ऐसे लोग  हैं जो किसी भी जाति अथवा धर्म में विश्वास नहीं रखते। वे प्रायः अपने आप को नास्तिक, तर्कवादी  मानते हैं या फिर किसी धर्म को न मानने वाले मानते हैं। यह कहना हैं’,  जी.विजयम का जो विजयवाड़ा में नास्तिक केंद्र के एक्सीक्यूटिव डायरेक्टर हैं।
‘जब आप यह कहते हैं कि नास्तिक केवल थोड़े से ही हैं तो आप वास्तविकता को तोड़-मरोड़ रहे हैं। यह रूढ़िवादियों और जनगणना अधिकारियों की शरारत है और इसे दुरुस्त करने की जरूरत है।’  विजयम ‘साईस एण्ड रैशनेलिस्ट  एसोसिएशन आॅफ इंडिया’  के प्रबीर घोष बताते हैं।
उन्होंने बताया कि जब जनगणना करने वाला कर्मचारीे उसके घर आया  तो घोष ने पूछा कि ‘आपने अपने रजिस्टर के धर्म के काॅलम में क्या लिखा है?’ तो कर्मचारी ने जवाब दिया ‘क्यो.ं?..हिन्दू..आप हिन्दू के हैं।  आप  हिन्दु नहीं हैं क्या? आपका उपनाम हिन्दू है।’ ‘इस पर मैंने  प्रोटेस्ट किया और बताया कि  मेरे नाम के सामने ‘नास्तिक’ लिखो। तो वह बीच में ही बोला कि इसके लिये तो उसे बहुत काट-पीट करनी पड़ेगी।’ यह सुनकर मैंने उससे वह कागज छीन लिया और उसमें लिखा ‘हिन्दू’ शब्द काट दिया’'', घोष बताते हैं।
श्री घोष एक कट्टड़ धार्मिक  बंगाली के रूप में पैदा हुए थे परन्तु व्यस्क होते ही उन्होंने एक रैशनेलिस्ट का रास्ता अपना लिया था। वे कहते हैं कि भारत में जनगणना वैज्ञानिक रूप से और ईमानदारी से नहीं की जाती।
जनगणना कितनी गलत है इसका अंदाजा इससे लगाया जा सकता है तामिलनाडू जैसे दृढ़ रैशनेलिस्ट  परम्परा वाले राज्य में में केवल 1297 नास्तिक दर्शाये गयेे हैं। द्राविड़ लिययक्का तामिझार परवई के सूबा वीरापांड्आन के अनुसार यह आंकड़ा बिल्कुल गलत है। वे कहते हैं कि  ‘केवल हमारे संगठन  के ही लगभग 2000 सदस्य हैं। जबकि हमारा संगठन तामिनाडु  सभी रैशनेलिस्ट आंदोलनों की जननी है।
विजयम ने अपनी एक टिप्पणी में कहा है कि यह सब  हमारे देश में लोगों को जानकारी न होने के कारण बहुत सारे नागरिकों को यह ज्ञात ही नहीं है  ‘कोई जाति नहीं’ अथवा ‘कोई धर्म नहीं’  लिखवाने जैसा उनके पास विकल्प भी होता है। श्री विजयम के पिता ने एथीस्ट सैंटर  नामक एक नास्तिक केंद्र की स्थापना की थी । इस संगठन ने उन लोगों के लिए  जनगणना विषय परबहुत संघर्ष किया है  जो सरकारी फार्मों के जाति अथवा धर्म के कालम  में ‘कोई नहीं’ अथवा  ‘निल’ लिखवाते हैं परन्तु कर्मचारियों द्वारा अड़चनें डाली जाती हैं।
विजयम कहते हैं कि  लगभग 29 लाख लोग ऐसे हैं जो गणना कर्मचाारियों को अपना धर्म नहीं बताते क्योंकि वे किसी भी धर्म को नहीं मानते परन्तु अपने आप को नास्तिक भी नहीं कहते हैं। यह संख्या और भी ज्यादा हो सकती है।  
‘नास्तिक’ शब्द सुनने में अपने आप में एक बड़ा अजीब सा शब्द प्रतीत होता है। शायद इसीलिए  कुछ लोग किसी भी धर्म को न मानते हुए अपने आप को नास्तिक नहीं कहते क्योंकि जब हम अपने आप को एथीस्ट कहते हैं तो उन्हें समाज में या तो अविश्वास के  साथ देखा जाता या फिर बड़ी अजीब नज़रों से देखा जाता है। वास्तव में नास्तिकों को संख्या  हमारी सोच  से कहीं ज्यादा है। ऐसे अधिकतर लोग नास्तिक होते हुए भी समाज के रीति रिवाजों के दबावों का सामना नहीं कर पाते और मजबूरन उन्हें उनका साथ देना पड़ता है अथवा उनमें शामिल होना पड़ता है।

 - बलदेव सिंह महरोक

¹¹‘‘एडिहेरेंट्स डाॅट काॅम’ विश्व में धार्मिक व अन्य प्रकार के आंकड़े एकत्रित करने वाला एक प्रमुख साईट है। 

शनिवार, 14 जुलाई 2018

मन की बात

कहते हो तुम मन की बात  ।
पर होती नहीं है जन की बात ।

मैं ही मैं करते रहते हो
कभी तो कर लो 'हम' की बात ।

उदघाटन करते हो जो भी
वह तो है 'मनमोहन' की बात ।

बोर हुए वादों से तेरे
नहीं है इनमें 'दम' की बात ।

राष्ट्रवाद  का नारा देकर
भूल गये हो 'वतन' की बात ।

प्यारो मित्रों ...  कह भरमाया
करते हो 'दुश्मन' की बात ।
   
डमरू खूब बजाते हो तुम
ढमढमा ढम दिन और रात।

(यदि आप इस कविता में दिये गये विचारो से इत्तफाक रखते हैं तो इसे   
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और लाईक भी करें। - )

मंगलवार, 26 जून 2018

एमरजेंसी आज की तुलना में



                            एमरजेंसी आज की तुलना में 

-एमरजेंसी को पिछले 43 वर्षों में जितना बदनाम किया गया है, वास्तव में उस समय की स्थिति ऐसी नहीं थी।
-एमरजेंसी एक शुद्ध राजनीतिक फैसला था और लड़़ाई एक राजनेता की दूसरे राजनेताओं के बीच  थी।
-केवल अराजकता  फैलने के डर से ही नेताओं को जेल में डाला गया था।
-इनमें अधिकतर वे लोग शामिल थे जो सांप्रदयिक फैलाने की कोशिश करते रहते थे। मजहबों का ध्रुवीकरण करने में लगे रहते थे, और देश को बांटने की कोशिश करते रहते थे।
-आम नागरिक को जेलों में नही डाला गया था
- जनता को किसी प्रकार की असुविधा झेलनी नहीं पड़ी थी। यदि असुविधा हुई थी तो विपक्षी नेताओं को जो वर्षों से कांग्रेस के हाथों से सत्ता छीनने के लिए हाथ-पांव मार रहे थे।
-वास्तव में इंदिरा गांधी एक अयरन लेडी थी। एक वहीं नेता थी जिसने  अपनी दृढ़ शक्ति से पाकिस्तान को 1971 की जंग में हराया था और  उनके 90000 सैनिकों को कैद कर पाकिस्तान के दो टुकड़े कर दिये थे। तथा पूर्वी पाकिस्तान ( अब बंगला देश) की ओर की सीमा  के सामरिक डर से देश को हमेशा के लिए राहत दिला दी थी। उस जैसी दृढ़ शक्ति वाली नेता सदियों में एक बार ही पैदा होता है।
-एमरजेंसी में बेशक कुछ समय के लिए नागरिकों के अधिकार  निलंबित कर दिए गये थे, और शक्ति सरकार के हाथ में आ गई थी,  परंतु व्यवहारिक रूप से जनता अपने मौलिक अधिकारों को ज्यों का त्यों उपयोग करती रही थी।
-आज की तुलना में देखा जाये तो जनता के अधिकार से कोई छोड़-छाड़ नहीं की गई थी।
-एमरजेंसी आम नागरिक के लिए केवल एक डर भर था जिससे देश में अनुशासन आ गया था।
-एमरजेंसी में धर्मों का ध्रुवीकरण नहीं होने दिया गया था। विभिन्न धर्मों के बीच कोई लकीर नहीं खींची गई थी। और जो लोग घृणा फैलाने की कोशिश करते थे, वे दुबक कर छुप गये थे।
-एमरजेंसी में किसी व्यक्ति को भीड़ ने नहीं मारा था।
-एमरजेंसी में किसी दलित पर कोई अत्याचार नहीं हुए थे।
1975 वर्ष की अगर आज के दौर से तुलना की जाये तो हम पाते हैं कि आज देश में  मानव अधिकारों का कहीं ज्यादा हनन हो रहा है। अराजक और सांप्रदायिक तत्व ज्यादा बेलगाम हो गये हैं। संविधान प्रदत्त शक्तियों को ज्यादा तोड़-मरोड़ कर उनका दुरुपयोग किया जाने लगा है। आज जब उन दिनों को याद किया जाता है तो हम देखते हैं कि आज जो  देश में घृणा की हवा दिन प्रतिदिन फैलती जा रही है, 1975 के वर्ष एमरजेंसी  के बावजूद भी  लोग आज  से ज्यादा सुख की सांस ले रहे थे।


गुरुवार, 21 जून 2018

A disussion on Misuse of Beaurocracy अफसरशाही का दुरुपयोग

  


   विपक्षी सरकारों को दबाने के लिए अफसरशही का दुरुपयोग एक खतरनाक खेल
1. भविष्य की सरकारों के लिए बोये जा रहे हैं कांटे। 
2. जनता के अंदर भाजपा के प्रति यह एक गलत संदेश।
3.  राष्ट्रीय राजनीति में ‘आप’ का कद भी बढ़ा। 

  दिल्ली में अफसरशाही का चुनी हुई सरकार के साथ सहयोग न करना, मुख्यमंत्री और मंत्रियों के बुलाने पर सरकारी मीटिंगों से जानबूझ कर अनुपस्थित रहना, और तरह-तरह के बहाने लगाकर सरकार के लिए संकट पैदा करना, नियमों को तोड़मरोड़कर संकट खड़े करना, फाईलों पर विपरीत टिप्पणियां लिखना  जैसी  प्रवृति लोकतंत्र में एक निहायत ही गलत परम्परा को जन्म दे रही है। 

              यह सही है कि दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्जा हासिल  नहीं होने के कारण बहुत सारी प्र्रशासकनिक शक्तियां वहां के उप राज्यपाल के पास निहित हैं। परंतु दिल्ली की राज्य सरकार और उपराज्यपाल की शक्तियों का बटवारा स्पष्ट न होने के कारण केंद्र मे बैठी सरकार द्वारा गलत फायदा उठाया जा रहा है। केंद्र में भाजपा सरकार द्वारा उप राज्यपाल के माध्यम से इन शक्तियों का दुरुपयोग किये जाने के आरोप लगातार लग रहे हैें। 

मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल का एलजी के सामने धरना देने का तरीका प्रथम दृष्टि में अटपटा सा जरूर लग सकता है  परंतु उनकी प्रशंसा की जानी चाहिए कि उन्होंने हमेशा की तरह अपना विरोध  जताने के लिए  शांतिपूर्ण और लोकतांत्रिक तरीका अपनाया । यही उनकी बड़ी विशेषता है कि वे अन्य दलांे के नेताओं की तरह  जनता को उकसाने जैसा कार्य नहीं करते बल्कि गांधीवादी सत्यग्रही तरीका अपनाते हैं ।

केंद्र में बैठी  भाजपा सरकार द्वारा जिस प्रकार अपने राजनीतिक विरोधियों को दबाने के लिए प्रशासकनिक अधिकारियेां  व अन्य केंद्रीय एजेंसियों का उपयोग किया जा रहा है,  यह निश्चय ही एक गलत परिपाटी डाली जा रही है। वह यह भूल रही है कि सरकारें आनी-जानी होती हैं। न ही केंद्र में सदैव भाजपा की सरकार रहेगी और न ही दिल्ली में सदा आम आदमी पार्टी की सरकार रहेगी। उनहे नहीं भूलना चाहिए किि दूसरे दल की सरकार आने पर भविष्यमें वे सब कठिनाइयां भाजपा की राज्य सरकारों को भी आ सकती हैं जो अब  गैर-भाजपा सरकारों को पेश आ रही हैं। 

जनता द्वारा चुनी हुई सरकार अपनी बनाई नीतियों को नौकरशाही की सहायता से ही लागू करवाती हैं परंतु यदि केंद्र में सत्तासीन कोई सरकार राज्य में विरोधी दलों के खिलाफ प्रशासनिक सेवा के अधिकरियों का इस्तेमाल करे, तो यह न केवल देश के लिए बल्कि उसके अपने लिए भी यह घातक होगा।
 

मंगलवार, 19 जून 2018

वन-महोत्सव Manaya Ja Raha Hai






         वन-महोत्सव









वन महोत्सव मनाया जा रहा है
एक मंत्री जी को बुलाया जा रहा है

लम्बे रास्ते को सजाया जा रहा है 
कुछ झौपड़ियों को हटाया जा रहा है

दस-बीस पेड़ों को कटाया जा रहा है 

वहाँ गमलों को सजाया जा रहा है

उँचे मंच पर बिठाया जा रहा है

फूलों का हार पहनाया जा रहा है

टी.वी. वालों को बुलाया जा रहा है

स्कूली बालाओं को नचाया जा रहा है

फिर उद्घाटन करवाया जा रहा है

एक पौधा लगाया जा रहा है


बैंड बाजा बजाया जा रहा है

जनता का दिल बहलाया जा रहा  है                     

बलदेव सिंह महरोक


रविवार, 17 जून 2018


नोटबंदी का भूत हमेशा डराता रहेगा भाजपा को।

                   आने वाले समय में  आज़ादी के बाद की दो काली घटनाएं देश की जनता  को याद रहेंगी जो हमेशा-हमेशा के लिए इतिहास के पन्नों में दर्ज हो चुकी हैं। एक 1975 के इंदिरा गांधी द्वारा लगाई गई इमरजैंसी और दूसरी मोदी सरकार की 2016 की नोटबंदी।
                   बहुत ढंढोरा पीटा गया और खुद की ही पीठ थपथपाई गई कि काला धन बैंकों में आ चुका है। यह नहीं बताया गया कि कितना। जनता जब सवाल करती है कि कहां है वह काला धन तो उसे जो जवाब मिलता है वह कुछ इस तरह का होता हैै-अरे, क्या आप वित्तमंत्री से ज्यादा जानते हैं?
आओ, अब हमारे कालू सेठ के पास चलें जिसके पास एक करोड़ रूपये का काला धन उसकी तिजौरी में रखा था ।
,                  नोटबंदी का सरकारी फरमान आया। काले धन वाले कालू सेठ ने पुराने नोटों की शक्ल में रखे अपने काफी नोट बैंक वालों से मिल कर नये नोटों में बदलवा लिये। बाकी बचे नोट उसने कुछ नौकरों, कुछ जानकारों, कुछ मित्रों कुछ रिश्तेदारों के माध्यम से बैंकों से बदलवा लिये। काला धन सफेद नहीं हुआ, बल्कि नये नोटों की शकल में बदल कर फिर उसकी तिजौरी में वापिस आ गया। कालू सेठ को कोई फर्क नहीं पड़ा। वह उस धन को फिर उसे उसी प्रकार मार्कीट में इस्तेमाल कर रहा है। अपने व्यापार में, जमीन जायदाद खरीदने में, सोना खरीदने में। हां, यह जरूर है कुछ दिनों के लिए उसे इस्तेमाल करने की रफ़्तार जरूर कम हो गई थी।
                   इस तरह के कई कालू सेठ देश में हैं। किसी के पास कुछ करोड़ तो किसी के पास हज़ारो करोड़। किसी कालू सेठ को कोई फर्क नहीं पड़ा। अगर फर्क पड़ा तो शरीफ ईमादार लोगों को पड़ा, करोड़ों कारोबारियों, दुकानदारों, मजदूर वर्ग, और छोटे-छोटे कारोबार करने वालों को पड़ा।
                   अब देखिए राजनीतिक पार्टियों सहित सरकारी गुण्डागर्दी। पार्टियों को मिलने वाले चंदे को सम्पूर्ण बदनीयति से ‘सूचना के अधिकार’ से बाहर रखा गया है। परंतु किसी पार्टी ने कभी नहीं कहा कि इसको भी सूचना के अधिकार के अंदर रखो............चोर-चोर मसेरे भाई।
                    चुनाव आयोग ने भी साफ कर दिया है कि राजनीतिक पार्टियों को मिलने वाला चंदा ‘सूचना के अधिकार’ की परिधि में नहीं आता। यानि उनके पास सैंकड़ों करोड़ रूपये का चंदा कहां से आया, किस विजय माल्या या नीरव मोदी या डालमिया या अडानी, फलानी, ढकानी ने दिया, वह काला है या सफेद। इसकी सूचना मांगने का अधिकार आप जनता को नहीं है। 
                    लेकिन दूसरी ओर 15-20 हज़ार रूपये महीना कमाने वाले किसी मोहन या सोहन ने इधर-उधर से 5-7 लाख रूपये इकट्ठा करके एक छोटा सा घर खरीद लिया है तो उसको उसका पूरा हिसाब देना ही पड़ेगा।
हमारी जनता को अपनी औकात में रहना होगा। उसे यह ध्यान रखना होगा कि वह सिर्फ जनता हैं, हुकमरान नहीं। उसका अधिकार बस इतना है कि वह पांच साल बाद होने वाले एक मजमे में जाकर एक बटन दबा दें जो टीं.. .. करेगा।
                                                                                 -बलदेव सिंह महरोक

गुरुवार, 14 जून 2018


File:Kim Jong-Un Photorealistic-Sketch.jpg

       विश्व का एक अद्भुत व्यक्तित्व किम
(किम इसलिए प्रशंसनीय है क्योंकि उसने विश्व के अन्य देशों के नेताओं की तरह अपने देश  को बेचा या गिरवी नहीं रखा ।)
               12 जून 2018 के दिन केे वे महत्वपूर्ण क्षण जब दुनिया के दो शत्रु देशों के नेताओं ने एक दूसरे से हाथ मिलाया मानो समय  कुछ  समय के लिये ठहर सा गया था। अत्यंत रोमांचक और सकून भरे क्षण थे वे। दुनिया के इतिहास में एक नया पन्ना जुड़ गया। मानव के सभ्य और बर्बरता के लम्बे इतिहास में मानव के सभ्य होने के लक्षण एक बार फिर  उजागर होते हुए प्रतीत हुए।
      एक तरफ दुनिया की लगभग एक सदी से दबंगता से दादागिरी  करते हुए अमेरिका का राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप और दूसरी ओर उसे वर्षों से चुनौती देने वाला एक छोटे से देश उत्तरी कोरिया का तानाशाह शासक  किम जुंग।  एक अद्भुत नज़ारा था टीवी पर देखने वालों के लिए। अपने देश की सुरक्षा की गारंटी लेकर  किम ने अपने प्रमाणु बम के  कार्यक्रम को बंद करने के समझौते पर हस्ताक्षर किये। ट्रंप ने 45 मिनट की बातचीत के पश्चात् जब उसके व्यक्तित्व को समझा परखा तो आखिर उसे कहना पड़ा कि किम एक बुद्धिमान और अपने देश को प्रेम करने वाला व्यक्ति है। अपने देश को प्रेम करना, उसकी सम्प्रभुता बनाये रखना ही किसी नेता की सबसे बड़ी ताकत होती है और वही ताकत किम जुंग में भी है। जो उसे इतने शक्तिशाली देश के सामने उसे चट्टान की तरह डटे रखती है।
       दुनिया के ये दोनों व्यक्तित्व जिन्होंने मनुष्य के सभ्य इतिहास को थोड़ा आगे सरकाया, इतिहास के पन्नों में दर्ज रहेंगे। किम इसलिए भी याद रहेगा कि उसके सामने अमेरिका जैसे दबंग देश की उसके देश की ओर आंख उठाने की हिम्मत नहीं हुई । किसी शासक की यह सबसे बड़ी विजय होती है। ट्रंप और किम दोनों के लिए इस समझौते को  न तो जीत कहा जा सकता है और न ही हार बल्कि मानव के सभ्य इतिहास की ओर एक और कदम ।
         इस सारी घटना से हटकर जो देखने वाली बात है वह यह है कि एक तरफ 71 साल के बूढ़ा ट्रंप  और दूसरी ओर उसके सामने उससे आधी आयु का 34 साल का किम जुंग उन।  जो 10337 किलोमीटर दूर दुनिया के सबसे शक्तिशाली देेश की नींद हराम किए रखता है और उसकी दादागिरी को धत्ता बता कर रखता है।  किम ने 2011 में उत्तरी कोरिया के शासक का पद संभाला था और इतने वर्षों के बाद भी अपने देश के आंतरिक और बाहरी विश्व के दबावों का मुकाबला करता हुआ किसी व्यक्ति के लिए  इतना आसान नहीं हैं शासक बने रहना। ऐसा व्यक्ति दुनिया के इतिहास में  अद्भुत ही माना जायेगा। किम कोरिया के उस परिवार से है जो सन् 1948 से उत्तरी कोरिया पर तानाशाही शासन करता चला आ रहा है। कोरिया जो 35 वर्षों तक जापान के अधीन रहा और जिसे विश्व युद्ध के पश्चात् मित्र देशों ने उस देश को दो भागों में बांट दिया, उसी प्रकार जिस प्रकार अंग्रेजों ने जाते जाते भारत के दो टुकड़े कर दिया थे यद्यपि दोनों की परिस्थितिया अलग अलग थीं। किम के दादा ने कोरिया के एकीकरण के लिये दक्षिणी कोरिया के खिलाफ युद्ध छेड़ा था।  इन वर्षों के दौरान अब तक दोनों कोरिया में कितनी जानें गईं अथवा कितनी अथर्क हानि हुई यह एक अलग विषय है परंतु  अपने देश की संप्रभुता को कायम  रखने के लिए छोटे देशों को अकसर ऐसी कुर्बानियां देनी पड़ती हैं।
        ऐसे समय में जब दुनिया के बड़े से बड़े देश भी अमेरिका को नाराज़ करने का जोखिम नहीं उठा सकते, किम का इस प्रकार डटे रहना उसके अंदर की अद्भुत शक्ति को दर्शाता है।
      भारत के मीडिया की तरह ही अमेरिका की दरोगाई में विश्व के मीडिया द्वारा किम को चाहे कितना भी बदनाम  किया जाता रहा हो, परंतु अमेरिका जैसी दबंग के सामने घुटने न टेकना और अपने देश की संप्रभुता को अक्षुण बनाये रखना किम जुंग को विश्व के महानतम् नेताओं के बीच खड़ा करती है।
     --बलदेव सिंह महरोक


शुक्रवार, 8 जून 2018

प्रणव मुखर्जी की आर एस एस को खरी खरी


जब बिल्ली ने शेर के जबड़े पर मारा एक घूंसा

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     एक बार शेर ने बिल्ली को अपने घर आने का न्योता दिया। मकसद था जंगल में अपनी खुंखार छवि को सुधारना। क्योंकि शेर जंगल के जानवरों को बेवजह मारने के लिए काफी बदनाम हो चुका था।
    बड़ी आलोचना होने लगी बिल्ली की उसकी बिरादरी की बिल्लियों की ओर से। पर बिल्ली खामोश थी। उसने शेर का न्यौता स्वीकार कर लिया।

  नियत दिन बिल्ली शेर के घर पहुंची। खूब आवभगत हुई। शेर और शेरनी और बच्चों ने मिलकर उसकी खूब आवभगत की। बिल्ली के आगमन पर उन्होंने एक भव्य समारोह का आयोजन किया।
       शेर बिल्ली की प्रशंसा करते हुए बोला - बिल्ली, रिश्ते में तुम हमारी मौसी लगती हो। तुम्हारे और हमारे पूर्वज एक थे।  इसका प्रमाण यह है कि तुम्हारे और हमारे नैन नक्श आपस में कितने मिलते-जुलते हैं। नाक, मुंह, मूंछें, पूंछ सभी। तुम्हारा हमारा भोजन भी एक सा ही होता है। तुम अन्य जानवरों से भी श्रेष्ठ हो।
  बिल्ली सदियों से शेर की आदतों से वाकिफ थी।  वह जानती थी बिलियां होशियार होती हैं पर शेर की तरह मक्कार, धोखेबाज  नहीं होती ।
  बिल्ली बोली, शेर भैया तुम बहुत अच्छे हो।
 सुनकर शेर  बहुत खुश हुआ।
तभी बिल्ली ने एक जोरदार  घूंसा शेर के जबड़े पर मारा।
यह क्या मौसी ?  --शेर हक्का-बक्का हो कर पूछने लगा।
'मूर्ख इतना भी नहीं जानता। यह तेरे लिए तोहफा लाई हूं। तेरी मौसी हूं।'

'और सुन, मूर्ख,  तुझे जंगल में रहने का  शऊर सीखना होगा।
       'वह कैसे  मौसी ?  ' शेर पूछने लगा।
       ' वह यूं कि , जंगल सब का है, एक का नहीं। हाथी भालू गीदड़, खरगोश, बिल्ली, भेड़िए आदि सभी  इसी जंगल के निवासी हैं। तुम्हें उनके साथ प्यार से रहना चाहिए। जो इस जंगल में पैदा हुआ है, वह इसी जंगल का बेटा है।'
    शेर अपना जबड़ा सहलाने लगा। उसे समझ नहीं आ रही थी कि वह रोते या हंसे।
       घूंसे के बाद शेर का जबड़ा
कुछ टेढ़ा हो गया है। सुना है शेर आजकल अपने जबड़े सिंकाई कर रहा है।
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बुधवार, 30 मई 2018

हे राम!

 हे राम !

हे राम!
Praying man holding a cross in front of a bright light. Stock Photo - 3505443तुझको सलाम!
साॅरी!
मैं गलत बोल गया। 
ज़बान फिसल गई। 
मुझे दूसरे धर्म की भाषा नहीं बोलनी चाहिए थी।
तेरे भक्त नाराज़ हो जायेंगे। 
पता नहीं तुझको पसंद है या नहीं, 
पर तेरे भक्तों को पसंद नहीं है । 
मैं अपने शब्द वापिस लेता हूं । 

2.
हे राम !
एक बात तो बताओ !
क्या तुम केवल भाजपा के हो ?
बाकी हिंदुओं के नहीं ?
Little girl praying in the morning.Little asian girl hand praying,Hands folded in prayer concept for faith,spirituality and religion.Black
सिखों के नहीं ?
ईसाइयों के नहीं ?
मुस्लमानों के नहीं ?
दलितों के नहीं ?
मैंने सुना था घट-घट मे होता है राम !
तुम चुप क्यों हो ?
साॅरी !
मुझे अंदर की बात नहीं पूछनी चाहिए थीं ।

      --बलदेव  सिंह महरोक

बुधवार, 23 मई 2018

क्या भाजपा का रथ रुक गया है?

             क्या भाजपा का रथ रुक गया है?
          
           कर्नाटक  विधान सभा चुनावों के नतीजे आये और उम्मीदों के अनुरूप ही आये। मोदी और अमितशाह की ताबड़तोड़ रैलियों के बावजूद व  केंद्र में अपनी सरकार होने के बावजूद वे मात्र 104 सीटें ही जीत पाये जबकि दावा 150 का कर रहे थे। बस, उनके लिये अगर खुश होने की कोई  बात है तो वह यह कि उनकी सीटें 40 से बढ़कर 104 हो गई।
उधर कांग्रंस भी बिना किसी के साथ गठबंधन के अकेले ही चुनाव मैदान में उतरी। उन्होंने 78 सीटें जीतीं। बेशक वह बहुमत का आंकड़े तक नहीं पहुंच पायी परंतु एक सम्मानजनक आंकड़ा जरूर प्राप्त कर लिया। यही नहीं सम्मानजनक दूसरे अर्थों में भी था। क्योंकि वोट प्रतिशत भाजपा के वोट प्रतिशत से ज्यादा प्राप्त किया। भाजपा को 36.2 प्रतिशत ही मिले जबकि कांग्रेस को 38  प्रतिशत वोट मिले । यानि भाजपा से दो प्रतिशत वोट ज्यादा मिले। 2013 के चुनावों की तुलना में यदि उनका वोट प्रतिशत बढ़ा है तो वह उन्होंने जेडीएस से व अन्यों से छीना है। कांग्रेस ने भी दो प्रतिशत वोट दूसरों से छीना है।
2013  के चुनावों की तुलना में इस बार भाजपा ने बेशक ज्यादा सीटें हासिल की हों परन्तु इससे भाजपा को लिए खुश होने जैसी कोई बात नहीं है। क्योंकि केंद्र में उनकी सरकार है जिस नाते उनकी पार्टी को कुछ लाभ मिलना लाज़िमी था।  परंतु ना तो  मोदी जी का जादू काम कर पाया और न ही अमित शाह की कोई रणनीति।  इसलिए 2019 के चुनावों के लिए कुछ चिंता में तो डाल ही दिया है और अब उन्हें अपनी रणनीति में परिवर्तन करना पड़ेगा।
ल्ेकिन कांग्रेस ने बेशक बहुमत आंकड़ा पार नहीं किया है परंतु उन्हें जरूर खुश होना चाहिए। देश में जनता के एक बड़े भाग की सहानुभूति उनके साथ थी जो सोशल मीडिया से साफ पता चल रहा था।
इस चुनाव प्रचार में सबसे बड़ी बात जो देखने में आई कि जहां प्रधानमंत्री  मोदी जी और अमित शाह अपने भाषणों में सभी हदें पार करते दिखाई दिए जो उनके पद के अनुरूप नहीं थे, वहीं राहुल गांधी के चुनाव भाषण बहुत सधे हुए, शालीनता से भरे हुए और मर्यादा में रह कर थे। उनके भाषणों की सबसे बड़ी बात यह थी कि उन्होने अपने भाषणों में जब भी प्रधानमंत्री का नाम लिया, तो सम्मान के साथ लिया। खास बात यह थी कि उन्होंने कभी मोदी जी का मज़ाक नहीं उड़ाया जो उनकी नैतिकता के मापदंड से उन्हें ऊंचा उठाती है।   मनमोहन सिंह के भाषण तो हमेशा की तरह नपे-तुले शब्दों में होते ही हैं। उनके एक एक शब्द में वज़न होता है।  अन्य कांग्रेस नेताओं की ज़बान भी इस बार नहीं फिसली। इन सबका लाभ कांग्रेस को आने वाले चुनावों में मिलेगा।  2019 के लोकसभा के चुनावों के लिए उनके लिये एक साकारात्मक सूचक है।
  यूं भारतीय राजनीति एक ऐसे ऐतिहासिक मोड़ से गुज़र रही हैं, जब क्षे़त्रीय पार्टियां सत्ता में एक बड़ी भूमिका निभा रही है। चाहे बंगाल हो, बिहार हो, उत्तर प्रदेश हो, उड़ीसा हो, तामिलनाडु हो, या महाराष्ट्र हो या उत्तरी पूवी राज्य हों। पिछले कुछ वर्षों से क्षेत्रीय दल लगातार  मजबूत होते जा रहे हैं। हाल ही में एनडीए में भागीदार बहुत सारी सत्ताधारी पार्टियों का बीजेपी से धीरे-धीरे मोह भंग होता जा रहा है और वे अपना स्वतंत्र रास्ता अख्तियार कर रहीं हैं। दोनों राष्ट्रीय दल चाहे कांग्रेस हो या भाजपा, भविष्य में क्षेत्रीय दलों के सहयोग के बिना केंद्र में उनके लिए सरकार बनाना मुश्किल होगा।
         
                    --बलदेव सिंह महरोक

रविवार, 13 मई 2018

शहीदों की चिताओं से वोटों की तलाश

  शहीदों की चिताओं 
 से वोटों की तलाश
      किसी प्रधानमंत्री के मुख से अगर शहीद भगत सिंह का नाम निकलता हैे तो थोडा ताजुब होना स्वाभाविक है।  चार साल में एक बार ही सही, मोदी जी के मुंह से भगत सिंह का नाम तो निकला, चाहे किसी बहाने ही सही। 
      कर्नाटक की एक चुनाव सभा में मोदी जी ने भगत सिंह का नाम कांग्रेस परिवार के साथ जोड़ कर लिया जो एक शुद्ध चुनावी भाषण था।  परंतु उसके पीछे कई मायने भी छिपे हुए थे।
      मोदी जी जनता से पूछा कि क्या कांग्रेस परिवार का कोई व्यक्ति भगत सिंह से जेल में मिलने गया था ? साथ ही उन्होंने यह स्वीकार भी किया  कि  उन्हें इतिहास का ज्यादा ज्ञान नहीं है। 
मोदी साहब का निशाना चाहे किसी पर भी हो, लेकिन एक सवाल उछालना था, उछाल दिया जिसके लिए वे माहिर माने जाते हैं। किसी ऐतिहासिक  पुरुष के नाम को वोटों में तबदील करने की कोशिश आप मोदी जी से सीख सकते हैं। भगत सिंह का नाम लेकर उन्होंने एक साथ तीन तीर छोड़े। अप्रत्यक्ष रूप से नेहरू पर वार करना चाहा। वीी सावरकर को याद किया, और साथ ही भविष्य के लिए भगत सिंह के नाम को वोटों के लिए भुनाने की संभावना की तलाश भी की। 
कांग्रेस परिवार के किसी व्यक्ति नेे कभी भगत सिंह से मुलाकात की थी या नहीं, यह तो इतिहास की किताबों में दर्ज है  परतंु इसके साथ कुंछ और सवाल भी पैदा होेते हैं कि  चार सालों तक आप कहां थे?आप ने अभी तक  भगत सिंह के साथ मुलाकात क्यों नहीं की ? भगत सिंह देश की राजधानी से मात्र 400 किलामीटर हुसैनी वाला में  राजगुरू और सुखदेव के साथ सोये हुए हैं। देश की जनता  के मन में भी एक सवाल आ रहा है कि आप  भगत सिंह की समाधि पर अभी तक क्यों नहीं गये। भगत सिंह के साथ-साथ स्वतंत्रता आंदोलन में अन्य  भी बहुत सारे क्रांतिकारी हुए हैं जिन्होंने देश के लिए अपना सर्वस्व बलिदान कर दिया था ।  बटुकेश्वर दत्त, जतिन दास, लाला लाजपतराय, चंद्रशेखर आज़ाद, अशफाकउल्ला खां, आदि अनेकों स्वतंत्रता आंदोलन के सितारे अपनी-अपनी कब्रों में सोये हुए हैं। आपने कभी उनका हालचाल नहीं पूछा। नेता जी सुभाष चंद्र बोस को कभी याद किया। हमारे देश के असली मंदिर इन्हीं शहीदों की कब्रें हैं। देवी-देवताओं के मंदिरों के साथ-साथ शहीदों के इन मंदिरों पर भी कभी माथा टेकने की कोशिश नहीं की जिनके के कारण आज हम आज़ादी की हवा में सांस ले रहे हैं। हाा
यदि भगत सिंह का इतना ही ख्याल है तो, आज तक किसी  विश्वविद्यालय, या किसी किसी संस्थान, किसी सड़़क या किसी सरकारी योजना का नाम भगत सिंह या किसी अन्य क्रांतिकारी के नाम पर क्यों नहीं रखा गया।  ज्यादा दिन नहीं बीत,े जनता की ओर से नवनिर्मित मोहाली के हवाई अडडे ्का नाम भगत सिंह के नाम पर रखने की पुरजोर मांग की गई। परंतु मगर उस ओर कोई ध्यान नहीं दिया गया।  और तो और, पाठ्यपुस्तकों में भी इन शहीदों से संबंधित अध्याय निकाले जाते रहे हैं।  मोदी जी ही को कयों दोष दें। बाकी दल भी तो  उसी थैली के चट्टे--बट्टे हैं।

          23 मार्च को भगत सिंह, राजगुरू, सुखदेव का जब  शहीदी दिवस आता है तो उसे पूर्ण रूप से अनेदेखा कर दिया जाता है। राष्ट्रीय स्तर पर तो मनाने की ये लोग सोच भी नहीं सकते।  यदि सचमुच भगत सिंह से इतना प्यार है तो 23 मार्च को राष्ट्रीय दिवस मनाये जाने की घोषणा कर दीजिए ना।  हो सकता हैै  शायद भगत सिंह भी वोट बटोरने के लिए काम आ जायें।
                        -बलदेवसिह महरोक
    Email:   baldevmehrok@gmail.com


Seeking votes from Bhagat Singh's samadhi

  Seeking votes from the graves of Martyrs 
 
                          If the name of martyr Bhagat Singh comes out of the mouth of a Prime Minister, it is natural to be somewhat upbeat. Only once in four years, the name of Bhagat Singh came out of the mouth of Mr. Modi, even if no excuse is right.
                          In a election meeting in Karnataka, Modi ji associated Bhagat Singh with Congress family, which was a pure election speech. But there were many things hidden behind him.
Modi ji asked the public whether any person from the Congress family had gone to meet Bhagat Singh in jail? He also acknowledged that he did not have much knowledge of history.
                          Whatever the target of Modi sahab may be, but there was a question pounce, bounce, for which he is considered master. You can learn from Modi ji trying to change the name of any historical man in votes. With the name of Bhagat Singh, they left three arrows together. Indirectly wanted to strike Nehru. Remembered Veer Savarkar, and also for the future, the name of Bhagat Singh for the future was also looking for the possibility of redemption.
                            Whether a person from the Congress family had ever met Bhagat Singh or not, this is recorded in the books of history. With this there is a scam and questions arise that why you have not met with Bhagat Singh in the last four years. ? Bhagat Singh is sleeping with Rajguru and Sukhdev only in the 400-kilometer Hussaini Wala from the capital of the country. There is a question in the mind of the people of the country that why have not you gone to the Samadhi of Bhagat Singh so far? Along with Bhagat Singh, there have been many other revolutionaries in the freedom movement, who sacrificed everything for the country. The stars of many freedom fighters, such as Batukeshwar Dutt, Jatin Das, Lala Lajpat Rai, Chandrasekhar Azad, Ashfaqullah Khan, etc. have slept in their tombs. You never asked about them.
You never remembered  Netaji Subhash Chandra Bose The real temples of our country are the graves of these martyrs. Apart from temples of gods and goddesses, these temples of martyrs never even tried to take a forehead, because of which we are breathing in the air of independence today. 
         
           If Bhagat Singh has so much consideration, then why not mention any university, or any institute, any road or any government scheme in the name of Bhagat Singh or any other revolutionary till date. Not long ago, it was urgently demanded from the public to keep the name of the newly built Mohali airbase named after Bhagat Singh. But no attention was given to it. Moreover, in the textbooks, chapters related to these martyrs have been removed.What to say of Modi ji. All other parties are of the same virws.

             On March 23, when the martyrdom day of Bhagat Singh, Rajguru, Sukhdev comes, it is completely ignored. These people can not even think at the national level. If Bhagat Singh really is so much love then do not announce to celebrate National Day on March 23. Maybe Bhagat Singh may also work to get votes.
     
                                  -Baldev Singh Mehrok
                                    Email: baldevmehrok@gmail.com




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